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राज
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शास्त्र तन्त्र भाषा इतिहास।
प्र॰। शिष्य कौन। उ॰। ब्रह्मसूत्र १॰३॰३४ भाष्य। उपनयनपूर्वकत्वाद्वेदाध्ययनस्य। उपनयनस्य च वर्णत्रयविषयत्वात्।
छान्दोग्य ५॰१०॰७ भाष्य। ॰ योनिमापद्येरन् प्राप्नुयुः ॰ स्वकर्मानुरूपेण। स्मृत्यादि शास्त्र के नियम इसके अनुरूप प्रतीत होते हैं।
कुतर्क दोहराने से तार्किक नहीं बनता।
अधर्म का नाश हो। अधर्मियों का किसी भी प्रकार मोक्ष हो जाए कोई समस्या नहीं। पर इससे उनका अधर्म धार्मिक नहीं बनता।
बातचीत की जय हो।


आगे मेरा कोई कर्तव्य नहीं।
विदुर उवाच। ॰अमुक॰योनावहं जातो नातोऽन्यद्वक्तुमुत्सहे। ॰॥ ब्राह्मीं हि योनिमापन्नः सुगुह्यमपि यो वदेत्। न तेन गर्ह्यो देवानां तस्मादेतद्ब्रवीमि ते ॥६॥ उद्योगपर्व अ॰४१ । सनत्सुजातीयभाष्य में आगे के बातों को औपनिषदिक मोक्षार्थ तत्त्वज्ञान बताया गया है। अर्थात पंचम वेद महाभारत का यह वेदान्त सब के लिए है। शास्त्र अनुमत सार्वजनिक ज्ञानकाण्ड है।
छान्दोग्यभाष्य ४॰४॰४ । विज्ञातकुलगोत्रः शिष्य उपनेतव्य॥ ब्रह्मसूत्रभाष्य १॰३॰३४ । जाति॰अमुक॰स्यानधिकारात्। अर्थात अधिकार जातिगत है॥ ब्रह्मसूत्रभाष्य १॰३॰३८ । इतिहासपुराणाधिगमे चातुर्वर्ण्यस्याधिकारस्मरणात्। अर्थात सब के लिए इतिहासपुराण का अधिकार है॥
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अथर्व ११॰५ । यहाँ ब्रह्मचारी पुरुष तथा ब्रह्मचर्य पालन करती कन्या का कथन है। सूत्र सत्रह के सायणभाष्य में ब्रह्मचारी द्वारा वेदाध्ययनार्थ कृत कुछ कर्मों को ब्रह्मचर्य माना गया। अर्थात वेदाध्ययन स्वयम ब्रह्मचर्य नहीं। इन्द्रिय संयम उपवासादि व्रत ब्रह्मचर्य के उदाहरण। तथा स्पष्टतः कन्या के लिए पति प्राप्त्यर्थ ये कर्म विहित है वेदाध्ययनार्थ नहीं। स्मृत्यादि शास्त्र में अमुक संस्कार विशेष के नियम इस के अनुरूप ही प्रतीत होते हैं।
ऐतरेय। स्कन्दपुराण महेश्वरखण्ड कुमारिकाखण्ड अ॰४२ सू॰२६ । अत्र तीर्थवरे पूर्वमैतरेय इति द्विजः।
उद्धृतव्य। शास्त्र के सम्बन्ध में अनेक भ्रम तथा कुतर्कों का खण्डन धर्मालोक पुस्तक सरणी में दशकों पूर्व किया गया है। भाषा हिन्दी। अभिलेखालय जालस्थान पर इसके अंकीय संस्करण उपलब्ध हैं।
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कवषऐलूष। ऐतरेयब्राह्मण पं॰२ अ॰३ ख॰१ सायणभाष्य। दास्याः पुत्रः इत्युक्तिरधिक्षेपार्थः। कितवः द्यूतकारः तस्माद् अब्राह्मणोऽयम्। ॰। इमं कवषं देवाः सर्वेऽपि विदुः विजानन्त्येव। अतोऽस्य कितवत्वादिदोषो नास्ति॥ अर्थात ये सब गालियाँ द्यूतक्रीडा के कारण। यह आक्रोश अथवा निन्दार्थ शब्द प्रयोग काशिका ६॰३॰२२ पुत्रेऽन्यतरस्याम् तथा २॰२॰६ नञ की महाभाष्य कैयट व्याख्या में विदित हैं॥ ब्रह्मपुराण गौतमीमाहात्म्ये अ॰६९ सू॰२। पैलूष इति विख्यातः कवषस्य सुतो द्विजः।
जाबाल। छान्दोग्यभाष्य अ॰४ ख॰४ सू॰५। ऋजवो हि ब्राह्मणा नेतरे स्वभावतः। यस्मान्न सत्याद्ब्राह्मणजातिधर्मादगा नापेतवानसि॥ यहाँ ब्राह्मण जाति माना गया है॥ मेधातिथि स्मृतिभाष्य अ॰१० सू॰५। गौतमस्यापि न ततो वचनाद्ब्राह्मणोऽयमित्यवगमः। प्रागेवासौ तं ब्राह्मण इति वेद। गोत्रं तु न वेद। गोत्रप्रश्नेन चरणप्रश्नो वेदितव्यः। तत्र उपनयनभेदोऽस्ति। न तु गोत्रभेदेनोपनयने प्रयोजनम्।
त्र्यवरा। तो यह था तीन का महत्व। दस की सहायता से तीन की स्थापना। तीन द्वारा अमुक नवाचरण का प्रतिपादन। और ये सब शास्त्र सम्मत परिवर्तन कहा जाना।
स्मर्त्तव्य। अमुक स्मृति विशेष के बारहवाँ अध्याय एकसौआठ से एकसौपन्द्रहवाँ सूत्रों में शिष्टा दशावरा अथवा त्र्यवरा परिषद द्वारा धार्मिक विषयों में लिए गये निर्णय मान्य बताया गया है। परन्तु इससे शास्त्र परिवर्तनीय नहीं। अनाम्नातेषुधर्मेषु से स्पष्ट है कि जो शास्त्रोक्त धार्मिक नियम हैं उनके अतिरिक्त विषयों पर ही निर्णय लेने की यह विधि है। यह भी कि तामसिकता अथवा अज्ञानता में लिए गये निर्णय अनाचरणीय।
प्र॰। अमुक स्मृति विशेष के दसवाँ अध्याय चालीसवाँ तथा सत्तावनवाँ सूत्रों में कहा गया है कि वर्ण अज्ञात हो तो उसे कर्मों से जाना जा सकता है। यह कैसे। उ॰। इन सूत्रों का प्रसंग केवल वर्णभ्रष्ट अथवा अवर्ण समाज प्रतीत है। अर्थात जिनका धार्मिक कर्मों में कोई विशेष अधिकार नहीं।
प्र॰। ब्राह्मण कौन। उ॰। व्याकरणमहाभाष्यम्। अ॰२ पा॰२ सू॰६ । तपः श्रुतं च योनिश्चेत्येतद् ब्राह्मणकारकम्। तपःश्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव सः। अमुक स्मृति विशेष के द्वितीय अध्याय एकसौतीसरा सूत्र का तात्पर्य भी यही है। अमुक यक्षप्रश्न का भी।
अनुवादक। यूट्यूब पर कुछ मासों से जानकारी वर्ग चलचित्र प्रणालियों के लिए आंग्ल से हिन्दी ध्वनि अनुवादक सुविधा उपलब्ध है। व्याकरण के कुछ विषय अतिरिक्त अनुवाददोष अधिक नहीं। विज्ञान तन्त्रज्ञान शब्दावली के लिए कुछ स्तर तक संस्कृत शब्द प्रयुक्त हैं। पर अनेक विदेशी शब्द भी ज्यों के त्यों प्रयुक्त हैं। इसके लिए शोधनात्मक न्यूनीकरण प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए।